पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा
सन् 1918 के बाद राजनैतिक चेतना की नई लहर देश में उठी, उसने राष्ट्रीय पुनर्जागरण की प्रवृत्तियों को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जगाया। इस वर्ष इन्दौर में महात्मा गांधी के सभापतित्व में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन हुआ। सन् 1922 में नागरी प्रचारिणी पत्रिका का नवीन संस्करण प्रारम्भ हुआ जिसका सम्पादन ओझा जी व चन्द्रधर गुलेरी ने किया। उन दिनों भारत विषयक अध्ययन में एक मुख्य पत्र के रूप में इस पत्रिका ने दुनिया भर के विद्वानों का ध्यान अपनी ओर खींचा।
ओझा जी आधी शताब्दी तक ज्ञान के प्रकाश स्तम्भ के रूप में खड़े थे। वे भारत के अतीत का मार्ग टटोलने में निरन्तर आलोक पाते रहे। सिरोही राज्य, सालंकियों तथा राजपूताने के इतिहास के साथ-साथ आपने इतिहास तथा अन्य विषयक कई ग्रंथ लिखे उनमें से उदयपुर राज्य का इतिहास प्रथम खण्ड (1928) द्वितीय खण्ड (1932), डूंगरपुर राज्य का इतिहास (सन् 1936), बांसवाड़ा राज्य का इतिहास (1936) बीकानेर राज्य का इतिहास प्रथम भाग (सन् 1937) द्वितीय भाग (सन् 1940), जोधपुर राज्य का इतिहास प्रथम भाग (1938) दूसरा भाग (1941), प्रतापगढ़ राज्य का इतिहास (1940) तथा तीन निबन्ध संग्रह प्रकाशित हुए। इसके अतिरिक्त आपने पत्र पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया।
ओझा जी के सम्पर्क में जो भी आया वह स्वयं प्रकाशित हो गया। उनके सम्पर्क से टोंक के मुंशी देवीप्रसाद, जोधपुर के रामकरण आसोपा, कविराज मुरारिदान, अजमेर के हरविलास सारड़ा, मेयो कोलेज के चन्द्रधर गुलेरी, जयपुर के पुरोहित हरिनारायण, जयपुर बीकानेर के रामलाल रत्म, मेवाड़ के मेहता जोधसिंह, रामनारायण दुग्गड़ और मुनि जिनविजय तथा कलकत्ते के पूरणचन्द नाहर आदि उनके मित्रों, सहयोगियों और शिष्यों की एक मण्डली खड़ी हो गई थी जिसने ओझा जी के साथ राजस्थान, गुजरात, सिंध, महाराष्ट्र, बुन्देलखण्ड, बघेलखण्ड, बिहार, नेपाल तक के इतिहास व पुरातत्व के विवेचन संशोधन में बड़ा महत्वपूर्ण कार्य किया। स्वीमी श्रद्धानन्द के शिष्य जयचन्द्र विद्यालंकार ने भी 1922 ई. में अजमेर आकर शिष्यत्व ग्रहण किया। (हमारा राजस्थान पृ. 474)
ओझा जी अपना काम सन् 1941 तक अनथक भाव से करते रहे। उनका आशीर्वाद व मार्गदर्शन इस बीच राजस्थान की हर सांस्कृतिक चेष्टा को प्राप्त होता रहा। उनका राजपूताने का इतिहास तब तक आधे रास्ते पर पहुंचा था। उनके और काशीप्रसाद जायसवाल के शिष्य जयचन्द्र विद्यालंकार ने इस बीच ‘भारतीय इतिहास परिचय’ नामक संस्था खड़ी की थी। उनका उद्देश्य भारतीय दृष्टि से समस्त अध्ययन को आयोजित करना और भारत की सभी भाषाओं में उसके द्वारा ऊं चे साहित्य का विकास करना था। (वही-पृ. 482)
सन् 1941 में ओझा जी ने जयचन्द्र विद्यालंकार को अजमेर बुलाकर कहा कि उनके शोधकार्य का भार वे उठा लें। उसके लिये राजस्थान में भारतीय इतिहास परिषद की एक शाखा स्थापित कर दे। इस विचार का उत्साह से स्वागत किया गया। किन्तु इसके शीघ बाद जापान युद्ध और सन् 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन आ गया। इस राजनैतिक संघर्ष में जयचन्द्र जेल चले गये। सन् 1946 में जब वे जेल से छूट कर आये तब तक राष्ट्रीय शिक्षा और भारतीय इतिहास परिषद के आदर्श के लिये उत्साह ठण्डा पड़ चुका था। ओझा जी वृद्ध हो चुके थे। 20 अप्रेल 1947 को ओझा जी ने 84 वर्ष की आयु में अपनी जीवन लीला समाप्त की।
ओझा जी ने इतिहास और हिन्दी के लिये अपना पूरा जीवन खपा दिया। वे सन् 1927 में भरतपुर अधिवेशन में तथा नडियाद में हुई गुजरात साहित्य सभा में सभापति मनोनीत किये गये। 1928 ई. में उन्होंने हिन्दुस्तानी एकडमी इलहाबाद में मध्यकालीन भारतीय संस्कृतियों पर तीन भाषण दिये। 1937 ई. में आप ओरियण्टल कांफ्रेंस बड़ौदा में इतिहास विभाग के अध्यक्ष बने। इसी वर्ष काशी हिन्दु विश्वविद्यालय ने आपके वृहत कार्य को देखते हुए डी.िलट उपाधि से विभूषित किया। इसी प्रकार 1937 ई. में साहित्य वाचस्पति और वचस्पति से विभूषित किया गया। (राजस्थान के इतिहासकार- पृ. 105)
डा. हुकमसिंह भाटी के शब्दों में ओझा ने राजपूताने के इतिहास के लेखन के लिये विस्तृत ठोसपूर्ण पीठिका बना कर एक अग्रदूत की भांति इतिहास का प्रणयन किया, कई प्रश्नों के उत्तर दिये, कई प्रसंग कायम किये। उन्होंने निरन्तर खोज व गंभीर अध्ययन केबाद राजनैतिक घटनावली की सुनिश्चित परम्परा कायम कर तत्कालीन आदर्शों के अनुसार इतिहास लेखन का प्रयास किया। कई अविदित तिथियों को उद्घाटित किया तथा अशुद्ध तिथियों का शुद्धीकरण किया। अनेक त्रुटित वंशावलियों को शुद्ध किया तथा अनेकानेक ऐतिहासिक लुप्त कड़ियों को जोड़ा। स्थानीय स्रोतों का फारसी आदि स्रोतों से सही तालमेल बैठा कर घटनाओं को परखने का सुयत्न किया। इस प्रकार राजस्थान के इतिहास सम्बन्धी वैज्ञानिक ढंग से अनुसंधान करने वाले वे एकमात्र विद्वान थे। नवीन अनुसंधान में निश्चय ही ओझा जी की यह शोध-साधना हमारा मार्ग प्रशस्त करती रहेगी और इसके लिये इतिहासकार व संशोधक सदैव उनके अनुगृहीत रहेंगे। (वही पृ. 130-131) (क्रमशः)
मेवाड़ के गौरव-241
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